पटना: लोकसभा चुनाव के परिणाम से परख होगी कि राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद की रणनीति आज भी कारगर है या समय के साथ इसके प्रभाव में कमी आई है। राजद ने उम्मीदवारी के चयन में 1991 सामाजिक आधार को फिर से हासिल करने का प्रयास किया है।
इसे जातियों की संख्या के आधार पर हिस्सेदारी के रूप में देख सकते हैं। गठबंधन के सभी पांच दलों को उनके सामाजिक आधार के अनुसार टिकट देने की सलाह दी गई। कांग्रेस को नौ सीटें मिलीं। इनमें सात सामान्य हैं। इनपर तीन सवर्ण, दो मुस्लिम, एक अति पिछड़ा और एक कुशवाहा उम्मीदवार बनाए गए।
राजद ने अपने कोटे से सिर्फ दो सवर्णों को टिकट दिया। इनमें एक भूमिहार और एक राजपूत हैं। महागठबंधन के 40 में पांच उम्मीदवार सवर्ण हैं। इनमें तीन भूमिहार, एक ब्राह्मण और एक राजपूत हैं। 2019 में इनकी संख्या नौ थी। लक्ष्य यह कि 1991 के लोकसभा चुनाव की तरह अगड़े-पिछड़े के बीच गोलबंदी हो जाएगी। देखना होगा कि यह लक्ष्य किस हद तक हासिल हो पाया।
2019 की तुलना में एमवाई समीकरण से इतर की कुछ जातियों की उम्मीदवारी में भागीदारी बढ़ाकर अवधारणा बनाने का जो प्रयास किया गया, उसका प्रभाव चुनाव प्रचार के दौरान जन चर्चाओं में देखा गया। एक- कुशवाहा इस बार महागठबंधन के साथ हैं।
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