मुजफ्फरपुर: झारखंड के साहिबगंज जिले के जामनगर गांव निवासी मिट्ठू मंडल। चारों ओर बांस के जंगल से घिरा हुआ उनका गांव। व्यापार या नौकरी का कोई अवसर नहीं। मिट्ठू मंडल ने बांस व जंगल को ही अपनी कमाई का जरिया बना लिया। मिट्ठू और उनके गांव के कई परिवार देश के किसी भी कोने में लग रहे भीड़-भाड़ वाले मेलों में बांस से बनी चकरी या फिरकी बेचने निकल पड़ते हैं। इस श्रावणी मेला में मिट्ठू और उनके गांव के कई परिवार मुजफ्फरपुर में बाबा गरीबनाथ धाम पर लगने वाले मेले में अपनी चकरी बेचने पहुंचे हैं। दस रुपए की चकरी बेचने के लिए उनके गांव के कई परिवार बनारस और हजार किलोमीटर दूर नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर तक गए हुए हैं।
गांव में बांस से चकरी बनाने का काम पुश्तों से चल रहा है। धीरे-धीरे स्थानीय स्तर पर मांग सिपटती गई। इसके बाद इसे बाहर के बड़े मेलों में बेचने का काम मिट्ठू ने शुरू किया। उनकी देखा-देखी गांव के पूरे आदिवासी समुदाय ने ही इसे अपनाकर आय का जरिया बना लिया। मुजफ्फरपुर में दस लोगों के समूह ने डेरा डाला हुआ है। इन्होंने छाता चौक के पास किराये पर मकान ले लिया है। सभी शनिवार, रविवार और सोमवार को मेले मेंऔर अन्य दिनों में आस-पास के मोहल्लों में फेरी लगाकर चकरी बेचते हैं। रामदयालु कॉलेज स्थित टेंट सिटी के प्रांगण में घूम-घूमकर भी अच्छी बिक्री हो जाती है।
गांव में हजार लोग इस काम जुड़े
मिट्ठू मंडल ने बताया कि उनका गांव जंगलों से घिरा है। गांव की आबादी करीब तीन हजार है। करीब एक हजार लोग चकरी बनाने का काम करते हैं। इसके लिए कच्चे बांस जंगल से लाए जाते हैं। बड़े-बुजुर्ग कमची बनाते हैं। महिलाएं कमची को रंगने का काम करती हैं। युवा रंग-बिरंगे कागज को काटकर उसकी लड़ी बनाते हैं। कागज फट ना जाए, इसलिए चकरी को अंतिम रूप उसी मेला स्थल या शहर में देते हैं, जहां बिक्री करनी होती है। प्रतिदिन 100 से 150 तक चकरी बेच लेते हैं।
मेलों में भी पहले सी बात नहीं रही
इन लोगों ने बताया कि इनके गांव के लोग मोतिहारी, दरभंगा, नेपाल के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर के अलावा बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर सहित जहां-जहां बड़ा मेला लगता है वहां चाकरी बेचने जाते हैं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि अब बिक्री कम हो गई है। मेलों में भी अब इसकी पहले जितनी मांग नहीं होती। इसके बावजूद कमाई की उम्मीद उन्हें इतनी दूर खींच लाती है।
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