हरि वर्मा
देश आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मना रहा है और इसी पखवाड़े बिहार चुनाव से जुड़े अवमानना मामले में ‘सुप्रीम फैसला’ आने जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सभी की निगाहें टिकी हैं। क्या यह फैसला राजनीति के अपराधीकरण पर हथौड़ा साबित होगा। क्या यह फैसला राजनीति में वर्षों से घुल-मिल चुके अपराधीकरण के वायरस पर अमृत महोत्सव की बेला में ‘अमृत’ साबित होगा। पिछले बिहार चुनाव से जुड़ा यह दूसरा फैसला होगा जो देश के लिए नजीर हो सकता है। कोरोना काल में संपन्न बिहार चुनाव ‘संजीवनी’और ‘अमृत’ के लिए यादगार साबित होगा।
गणतंत्र बनाम ‘गन तंत्र’
बिहार गणतंत्र की धरती है। लोकतांत्रिक महापर्व चुनाव के दौरान अमूमन यह धरती ‘गन तंत्र’ में बदलती रही है। कमोबेश यही स्थिति समूचे देश की है। राजनीति में अपराधीकरण सबसे बड़ा वायरस है। कभी चुनाव में बूथ लुटेरों को देखते ही गोली मारने के आदेश सुर्खियां बना करती थीं। उनकी जगह बंपर मतदान के बीच छिटपुट झड़प ने ले ली। ढंग बदला है, रंग नहीं। सियासत के दाग-धब्बे सभी को अच्छे लगते हैं। अब बूथ लुटेरों के सपने खुद माननीय बनने के हो गए हैं। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में 243 सीटों पर 470 दागियों ने किस्मत आजमाए। यह संख्या विधानसभा सीटों की तुलना में औसतन दोगुना दागी प्रत्याशी की है, जबकि इनमें निर्दलीय शामिल नहीं हैं। एडीआर ने इनका जिक्र किया लेकिन दलों या उम्मीदवारों ने ये दाग छिपा लिए। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की ओर से दागी उम्मीदवारों की जानकारी बेवसाइट व अखबारों में इश्तहार देकर सार्वजनिक करने की हिदायत थी। बिहार चुनाव से जुड़े 470 उम्मीदवारों और करीब-करीब अधिकांश राजनीतिक दलों ने ऐसा नहीं किया। इस पर अवमानना मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। तारीख-दर-तारीख सुनवाई हुई। 20 जुलाई को फैसला सुरक्षित हो गया। अब इसी पखवाड़े कठोर फैसला आने
जा रहा है। हालांकि, फैसला और फैसले की तारीख सुप्रीम कोर्ट तय करेगा।
हमाम में सब नंगे
बिहार में जंगल राज के नाम पर लड़े गए पिछले चुनाव में राजद के सर्वाधिक 104 दागी उम्मीदवार मैदान में थे, लेकिन शुचिता की बात करने वाली भाजपा भी कम नहीं थी। भाजपा ने भी 77 दागी उम्मीदवार लड़ाए। सुशासन बाबू के पर्याय नीतीश कुमार के जदयू ने 56 तो धार्मिक आस्था व खुद
को हनुमान साबित करने वाली लोजपा ने 67 दागियों पर दांव लगाया। कांग्रेस ने 45, रालोसपा ने 57, बसपा ने 29 तो एनसीपी ने 26 दागी उम्मीदवार दिए। क्रांति की बात करने वाले वाम दल भाकपा ने 5 तो माकपा ने 4 दागी उम्मीदवार उतारे। किसी को दाग और दागी से परहेज नहीं। यही कारण है कि अवमानना से जुड़े इस मामले की सुनवाई करते हुए 20 जुलाई को जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित किया तो तल्ख टिप्पणी की कि राजनीति के अपराधीकरण पर सभी दलों में ‘विविधता में एकता’ है। कोई दल राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति के पक्ष में नहीं है और यकीन है कि विधायिका ऐसा कभी नहीं करेगी।
‘सुप्रीम फैसले’ से आस
राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग और राजनीतिक दल समय-समय पर चिंता जताते रहे हैं। जब दाग से दूरी की बात आती है तो सभी दल भूल जाते हैं और उनके जिताऊ उम्मीदवार लाउंड्री में दागों से धूल जाते हैं। चुनाव आयोग भी बेबस दिखता है। आचार संहिता या अवहेलना के मामले में बड़ी कार्रवाई से परहेज करता है। चुनाव सुधार से जुड़ी अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट पहले से चिंता जताता आ रहा है। सरकार की ओर से फास्ट ट्रैक अदालतों के जरिये माननीयों के आपराधिक मामलों के निपटारे के वादे किए गए हैं, लेकिन चुनाव आते सारी कोशिशें बिसरा दी जाती हैं। चुनाव सुधार का मुद्दा चुनाव आयोग, विधायिका और न्यायपालिका के बीच झूल रहा है। अब बिहार चुनाव से जुड़े अवमानना के इस मामले में इसलिए भी कठोर फैसले की आस है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे की जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस बीआर गवई की पीठ में दलील थी कि अवमानना के मामले में सांकेतिक (टोकन) सजा न दी जाए कि सोशल मीडिया पर फोटो दिखे। इशारा अवमानना मामले में एक रुपये जुमाने के सांकेतिक (टोकन) सजा की ओर था। दलील तो यह भी दी गई
चुनाव निशान निलंबन अंतिम उपाय हो, लेकिन ऐसा संभव नहीं। ऐसे में तो एक-एक कर राजनीतिक दलों के सिंबल के अस्तित्व पर भी सवाल उठ खड़े होंगे। ऐसे दागियों या दलों को प्रतिबंधित करने का अधिकार चुनाव आयोग को मिले, ऐसी भी दलील पेश की गई। इस पर भी बहस हुई कि जिनके खिलाफ गंभीर अपराधों में अदालत ने आरोप तय किए, वे कितने साल सजा वाले हैं और क्या सात साल की सजा वाले दागियों को कार्यवाही के दायरे में लाया जाए। ऐसे में भले यह अवमानना का मामला है लेकिन यह फैसला राजनीति के अपराधीकरण की सजा के प्रावधान को लेकर अहम साबित होने वाला है। उम्मीद की जा सकती है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आने वाले चुनावों में राजनीति के अपराधीकरण के वायरस (जहर) के खिलाफ अमृत साबित हो और समूचे देश के लिए नजीर बन जाए। यूं भी कोरोना संकट में ऑक्सीजन-बेड़ की कमी, दवा की कालाबाजी से लेकर मौत पर मुआवजे तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही राह निकलकर आई है।
‘संजीवनी’बनाम ‘अमृत’
कोरोना काल में संपन्न हुए बिहार चुनाव से जुड़ा यह दूसरा मामला है जो देश के लिए नजीर साबित होने वाला है। अमृत की इस आस से पहले बिहार चुनाव से देश को ‘संजीवनी’ मिली। कोरोनाकाल में बिहार में चुनाव कराने के फैसले को लेकर चुनाव आयोग और सरकार की खूब किरकिरी हुई। बिहार चुनाव घोषणा पत्र में भाजपा ने मुफ्त वैक्सीन का वादा किया। अब इस पर समूचे देश में अमल हो रहा है। देश में 75 फीसदी टीकाकरण
(संजीवनी) मुफ्त है। सो उम्मीद कर सकते हैं कि राजनीति में अपराधीकरण का जो वर्षों पुराना वायरस है, बिहार अवमानना से जुड़े इस मामले के आने वाले फैसले से अमृत साबित हो और यह लोकतंत्र के साथ-साथ देश के लिए नजीर बन जाए। अंत में बिहार में का बा…. बिहार में की नैई छई…। बिहार में संजीवनी छई…, अमृत बा… हर मर्ज का इलाज है।
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