कैमूर: भभुआ जिले में करीब दो हजार हेक्टेयर भूमि में दाल की खेती होती है। मीठी व स्वादिष्ट दाल के लिए यह जिला चर्चित है। लेकिन, ब्रांड नहीं होने की वजह से बाहर की मंडी में अब तक इसकी कोई खास पहचान नहीं बन सकी है। यह अलग बात है कि जो लोग कैमूर की दाल एक बार खा लिए वह इसे हमेशा खाने की चाहत रखने लगते हैं। खास आयोजनों पर मेहमानों को खिलाने के लिए लोग यहां की दाल खरीदकर अपने घरों में रखते हैं। दूसरे राज्य में रहनेवाले या रहकर कामकाज करनेवाले लोग भी सीजन में कैमूर की दाल मंगाकर रख लेते हैं।
जिस तरह कैमूर के गोविंदभोग चावल की मांग देश ही नहीं, विदेशों में भी है, उसी तरह बाजार में ‘मीठी दाल’ की भी मांग तेजी से बढ़ने लगी है। गोविंदभोग चावल तो देश-विदेश तक में चर्चित है और इसी चावल से अयोध्या में प्रसाद तैयार होता है। यहां की दाल भी प्रसिद्धि पा रही है। जिले की अखरा दाल की मांग किसानों व कैमूरवासियों के रिश्तेदार भी करते हैं।
बताते हैं कि शुरू में गोविंदभोग चावल की मांग भी इसी तरह धीरे-धीरे बढ़ी और अब इसकी महक विदेशों तक पहुंच गई है। इसलिए किसानों को उम्मीद है कि गोविंदभोग की तरह दाल की भी मांग बढ़ेगी। खासकर जंगल-पहाड़ क्षेत्र की मिट्टी में उपजने वाली दाल की।
पहाड़ पर कई तरह की जड़ी-बूटी उपजती है। इन्हीं जड़ी-बूटियों से होकर खेतों में पानी पहुंचता है, जिससे दाल की फसल की सिंचाई होती है। साथ ही पहाड़ी इलाके के किसान दाल की फसल में रासायनिक खाद का उपयोग नहीं करते हैं। जिले के अधौरा, रामपुर, भगवानपुर, चैनपुर प्रखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में भी दाल की खेती होती है। इसी खेती की बदौलत किसान घर-परिवार का खर्च चलाते हैं।
20 हजार हेक्टेयर में होती है दाल की खेती
कैमूर जिले में विभिन्न प्रकार की करीब 20 हजार हेक्टेयर में दाल की खेती होती है। लेकिन, कृषि विभाग के दस्तावेज में 17 हजार 100 हेक्टेयर में दाल की खेती होने की बात है। जिला कृषि विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, चना की खेती 85 सौ हेक्टेयर, मसूर का उत्पादन 75 सौ, मटर की खेती एक हजार, गरमा मूंग की खेती 100 हेक्टेयर में होती है। इसके अलावा जिले के किसान अरहर दाल की भी अच्छी खेती करते हैं। पहाड़ी क्षेत्र की खेती वर्षा व पहाड़ी नदियों पर निर्भर रहती है। इसलिए उक्त क्षेत्र के किसान धान-गेहूं की खेती न भी करें, तो दाल की खेती जरूर करते हैं, क्योंकि इसमें पानी की जरूरत कम पड़ती है।
क्या कहते हैं किसान
अधौरा प्रखंड के किसान रामभजन यादव व शोभनाथ उरांव ने बताया कि टांड़ (ऊंची भूमि) पर दाल की खेती की जाती है। खेतों में राख, गोबर, सड़ी-गली पत्तियां आदि फेंकते हैं, जो खाद का काम करती हैं। हमलोग महंगी रासायनिक खाद खरीदकर फसल में नहीं डालते हैं। जड़ी-बूटी का पानी भी पहाड़ से आता है, जिससे फसल की सिंचाई होती है। यही कारण है कि यहां की दाल के अलावा अन्य फसल के दाने में भी स्वाद है।
क्या कहते हैं कृषि वैज्ञानिक
राष्ट्रीय खाद मिशन के दलहन-तेलहन के प्रत्यक्षण प्रभारी कृषि वैज्ञानिक डॉ. अमित कुमार सिंह ने बताया कि पहाड़ी क्षेत्रों में मवेशियों की संख्या ज्यादा होने की वजह फसल को नेचुरल आर्गेनिक खाद मिल जाती है। इससे दलहन का स्वाद व गुणवत्ता बनी रहती है। मिट्टी भी अच्छी है, जिसमें फॉसफोरस कंटेंट ज्यादा है। इसलिए दलहन व तेलहन का उत्पादन बढ़ता है। ऊंची जमीन होने से जलजमाव की समस्या नहीं होती है। राष्ट्रीय खाद्य मिशन के तहत कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा रबी सीजन में 20 हेक्टेयर में चना, 10 हेक्टेयर में मसूर, 20 हेक्टेयर में तीसी, 20 हेक्टेयर में सरसों की खेती कराई गई है। खरीफ सीजन में 50 हेक्टेयर में दलहन की खेती कराई गई थी।
कैमूर में उत्पादित होनेवाली दाल
- दाल रकबा/हेक्टेयर
- चना 8500
- मसूर 7500
- मटर 1000
- गरमा मूंग 100
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