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गिरिराज सिंह ने कर्पूरी ठाकुर और वीपी सिंह से की लालू-नीतीश की तुलना

पटना: बिहार में जाति आधारित जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए गए हैं।  केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा है कि ये रिपोर्ट नीतीश और लालू यादव के लिए स्ट्रोक नहीं बल्कि बैक स्ट्रोक है क्योंकि पिछले 33 सालों से इन्हीं दोनों भाइयों की राज्य में सामाजिक न्याय की सरकार है, बावजूद इसके गरीबों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि नए आंकड़ों से अगड़े या पिछड़े वर्ग और उनके अंदर के गरीबों को कोई फायदा नहीं होने वाला। बहुत होगा तो बिहारी कहावत के अनुसार ‘मूस मोटैहें, लोढ़ा होइहें’ होगा। यानी उनकी गरीबी और बढ़ने वाली है।

क्या नीतीश कुमार ने खींच दी लालू यादव से भी लंबी लकीर, कर्पूरी ठाकुर और वीपी सिंह से क्यों हो रही तुलना?

दूसरी ओर रिपोर्ट जारी होते ही जनता दल यूनाइटेड के प्रवक्ताओं ने इसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जीत करार दिया है और कहा है कि वह सच्चे मायने में ओबीसी और दलितों के हितैषी साबित हुए हैं। जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता के सी त्यागी ने कहा कि कर्पूरी ठाकुर और वीपी सिंह के बाद सच्चे मायने में नीतीश कुमार आज पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के लोगों के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता के तौर पर उभरे हैं, जिन्होंने कई 100 वर्षों की गुलामी को तोड़ते हुए जातीय जनगणना करवाई। इससे साबित हो गया कि ओबीसी 63 फीसदी हैं।

आगे की मंशा साफ करते हुए त्यागी ने कहा कि कर्पूरी फार्मूले के तहत नीतीश कुमार का फार्मूला अत्यंत पिछड़े वर्ग को भी उनकी संख्या का अनुपात में आरक्षण उपलब्ध कराएगा, जो पिछले 75 वर्षों के दौरान किसी और सरकार ने उपलब्ध नहीं करवाई है। उन्होंने कहा कि आगामी चुनावों में नीतीश कुमार देशभर में घूमघूमकर जातीय जनगनणा की वकालत करेंगे और लोगों को समझाएंगे कि शोषितों,वंचितों को उनकी अपनी संख्या जानने का अधिकार है।

 

जब नीतीश कुमार ने बिहार की बागडोर संभाली तो उन्होंने कर्पूरी ठाकुर के मॉडल को अपनाते हुए महिलाओं को आरक्षण दिया। वह आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा करने की मांग करते रहे हैं। हालांकि, कई राज्यों में 50 फीसदी से ज्यादा के आरक्षण प्रावधानों को अदालतों में इस आधार पर खारिज किया जाता रहा है कि आरक्षण सीमा बढ़ाने का कोई ठोस आधार नहीं है। अब नीतीश ने उस ठोस आधार का जुगाड़ कर लिया है। ऐसे में माना जा रहा है कि आगे वह आरक्षण सीमा बढ़ाने का दांव चल सकते हैं।

इस मायने में वह अपने बड़े भाई कहे जाने वाले लालू यादव से आगे निकलते दिख रहे हैं। हालांकि, यह बात स्पष्ट है कि अगड़ों के खिलाफ पिछड़ों में राजनीतिक चेतना जगाने में लालू नीतीश से आगे रहे हैं लेकिन उस सियासी जागरूकता की फसल काटने में नीतीश आगे रहे हैं। अब जब कई राज्यों में विधान सभा चुनाव हबोने हैं और अगले साल आम चुनाव होने हैं, तब ओबीसी को लेकर जारी सियासत के केंद्र में नीतीश एक नायक के रूप में उभर सकते हैं।

 

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