मुजफ्फरपुर शहर को उत्तर बिहार की अघोषित राजधानी कहा जाता है, संभव है यहां की पुलिस से आसपास के जिलों की पुलिस प्रेरणा लेकर काम करती होगी। लेकिन, जब यहां के थानों में ही कुछ ऐसा हो रहा हो जो आम जनता के लिए नागवार गुजरे तो बाकी की दशा क्या होगी, इसका अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं, मुजफ्फरपुर जिले में 28 थाने हैं। इसके अलावा कई ओपी भी हैं। सभी थानों और ओपी में अलग-अलग आरोपों में जब्त किये गये हजारों की तादात में वाहन रखे गये हैं। ये वाहन थानों में रखे-रखे सड़ रहे हैं। कई तो कबाड़ भी बन चुके हैं।
इन वाहनों को क्यों नहीं इनके मालिकों को दे दिया गया या इनकी निलामि कर दी गयी, इसका जवाब कोई नहीं दे रहा। इन वाहनों के कारण ये थाने हैं या कबाड़खाने यह कहना मुश्किल है।
मुजफ्फरपुर शहर ही नहीं, ग्रामीण इलाकों के थानों में भी आप चले जाइये, आपको भारी तादात में जब्त किये गये वाहन दिखेंगे। आश्चर्य की बात है कि इन वाहनों को कोई देखने की जरूरत भी नहीं समझता। आखिर देखे भी क्यों, वाहन तो अब किसी काम के रहे ही नहीं। इन वाहनों के अधिकांश कल-पुर्जे गायब हो चुके होते हैं। अब ऐसी स्थिति में वाहन का मालिक भी उसे लेने से पीछे हटा जाता है।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि पुलिस इन वाहनों को थानों से हटाने के लिए कुछ नहीं करती। वर्ष 2006-07 में तत्कालीन एसपी रत्न संजय ने इसके लिए पूरी कोशिश की, लेकिन कानूनी पेंचीदगियों ने ऐसा नहीं होने दिया। तब हम पत्रकार लोगों ने भी चारपहिया वाहन लेने के सपने संजो लिये थे। लेकिन, कानून की पेंचिदगियों के कारण वे भी हार मानकर बैठ गये।
अगर कानून सम्मत विचार हो तो एक समय सीमा तय कर दी जाए कि इतने समय तक अगर आपने वाहन वापस नहीं लिया तो उसे निलाम कर दिया जाएगा।
इसमें पुलिस अधिकारियों की भूमिका भी तय करनी होगी कि वाहन किस कारण और क्यों जब्त की गयी। फैसला आसान नहीं है।
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