बिहार विलुप्त होने की कगार पर खड़े पशु और पक्षियों के उद्धार की प्रयोगशाला बन गया है। डॉल्फिन की ही तरह भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ पक्षी को संरक्षित करने का गर्व बिहार ने हासिल कर लिया है। अंग्रेजी में ग्रेटर एडजुटैंट स्टॉर्क्स और हिन्दी में गरुड़। ये दुनिया के सामने विलुप्तप्राय पक्षी है लेकिन बिहार ने इसे पाल-पोस कर बढ़ा दिया है।
बिहार के भागलपुर में कोसी नदी के किनारे कदवा दियारा में गरुड़ पक्षी का बढ़िया आशियाना बन गया है जहां 600 से भी ज्यादा गरुड़ अपने वंश को बचा और बढ़ रहे हैं। गरुड़ का बिहार में इस संख्या में होना इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि एक तो दुनिया के 90 फीसदी गरुड़ भारत में हैं और बिहार के इस इलाके के अलावा देश में सिर्फ असम में ही मिलते हैं। अनुमान है कि पूरी दुनिया में अब 1500-1800 गरुड़ हैं जिसमें बिहार का बहुत बड़ा योगदान है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में पक्षीराज के तौर पर स्थापित गरुड़ को कुछ दशक पहले खत्म ही मान लिया गया था जब ये सिर्फ असम में ब्रह्मपुत्र नदी की घाटियों में मिलते थे। 16 साल पहले बिहार के इस इलाके में गरुड़ दिखे और फिर शुरू हुआ इनके संरक्षण का काम। आज उस संरक्षण के प्रयास का नतीजा सामने है। दुनिया के 90 परसेंट गरुड़ इंडिया में हैं और उसमें बिहार का रोल बहुत ही खास है। बिहार में गरुड़ की संख्या 600 को पार कर चुकी है जो बहुत जल्द असम में गरुड़ की संख्या के बराबर हो सकती है।
इंडियन बर्ड कंजर्वेशन नेटवर्क के अरविंद मिश्रा हालांकि एक मुश्किल देख रहे हैं। गरुड़ अपने प्रजनन क्षेत्र में 11 हजार किलोवाट की बिजली लाइन के खतरे को झेल रहे हैं। मिश्रा बताते हैं कि पिछले दो साल में बिजली लाइन में सटने से तीन गरुड़ की मौत हो गई जो बहुत दुखदायी है। मिश्रा बताते हैं कि उन्होंने ये बात पर्यावरण विभाग के प्रधान सचिव दीपक कुमार सिंह को बताई जिन्होंने इस संज्ञान लिया। सरकार ने फौरी एक्शन लिया और गरुड़ के प्रजनन एरिया से गुजर रहे एक किलोमीटर हाई टेंशन वायर को अंडरग्राउंड करवा दिया। इस एक किलोमीटर के दायरे में एक पीपल के पेड़ पर गरुड़ के 23 घोंसले हैं।
मिश्रा ने बताया कि कुछ साल पहले इस इलाके से एक फोरलेन सड़क गुजरने का प्लान बना था लेकिन हमलोगों के आग्रह पर सरकार ने पीपल के पेड़ को बचाने के लिए सड़क का रास्ता बदल दिया। मिश्रा ने बताया कि गरुड़ समूह में एक ही पेड़ पर घोंसले बनाकर रहते हैं और वहीं प्रजनन करते हैं। आस-पास के लोग इस पेड़ की देव तुल्य पूजा करते हैं। मिश्रा कहते हैं कि बिहार ने जिस फुर्ती के साथ गरुड़ को बचाने के लिए काम किया, वो गुजरात और राजस्थान में नहीं देखने को मिल रहा है जहां गोडावण या गुरायिन या बड़ा भारतीय तिलोर गंभीर ख’तरे में हैं और उनकी संख्या भारत में महज 200 के आसपास रह गई है। इनमें से बहुत बिजली के करंट से मर गईं क्योंकि वहां अंडरग्राउंड वायरिंग नहीं है।
मिश्रा बताते हैं कि गरुड़ की जीपीएस ट्रैकिंग भी की जा रही है जिससे पता चले कि वो कहां जाते हैं। उन्होंने बिहार सरकार को सैटेलाइट ट्रैकिंग का प्रस्ताव दिया है जिससे गरुड़ के साल भर के मूवमेंट का पता चले कि ये बारिश के मौसम में कहां जाते हैं और कितनी दूर तक जाते हैं। बिहार में ही कदवा दियारा के अलावा गरुड़ को खगड़िया, पूर्णिया और मधेपुरा में भी देखा गया है। उन्होंने कहा कि ये बहुत ही संतोषजनक बात है कि इस इलाके में गरुड़ बिना किसी शिकारी के खौफ के प्रजनन कर रहे हैं। कुछ समय पहले यूएनडीपी और नेशनल बायोडायवर्सिटी अथॉरिटी की टीम आई थी और उसने गरुड़ संरक्षण पर फिल्म भी बनाई है। मिश्रा कहते हैं कि ये सब संभव हुआ हैं आस-पास के लोगों के सहयोग से जिसकी कोशिश वो खगड़िया से लेकर मधेपुरा तक कर रहे हैं जहां भी गरुड़ दिखा है।
बिहार के अपर मुख्य वन संरक्षक पीके गुप्ता ने कहा कि 2007 में अरविंद मिश्रा के गरुड़ देखने से शुरू हुआ ये मिशन एक अभियान बन चुका है और इसकी सफलता को अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता भी मिली है। उन्होंने बताया कि इस साल राज्य के 68 वेटलैंड के सर्वे से पता चला कि बिहार में 202 प्रजाति के प्रवासी पक्षी हैं जिनकी संख्या 45 हजार से भी ज्यादा है। गुप्ता कहते हैं कि बिहार में 2.25 हेक्टेयर से बड़े 17500 वेटलैंड हैं। सोचिए अगर हम सारे वेटलैंड के प्रवासी पक्षियों को गिन लें तो क्या हसीन फिगर सामने आएगा।
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