गीता केवल एक धर्म ग्रंथ ही नहीं, बल्कि यह एक जीवन ग्रंथ भी है, जो हमें पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। शायद इसी कारण से हजारों साल बाद आज भी यह हमारे बीच प्रासंगिक है। मान्यता है कि द्वापर युग में त्रियोग के प्रवर्तक श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता ज्ञान दिया था, जो मोक्षदायक है। इसी कारण इस एकादशी का एक प्रचलित नाम मोक्षदा एकादशी भी है।
यह दिन ‘गीता जयंती’ के रूप में भी प्रचलित है। धर्मज्ञों की राय में धार्मिक व आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रतिपादन ही गीता का मूल उद्देश्य है।
कर्म और धर्म के महाकोष गीता में कुल 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता त्रियोग, रजोगुण संपन्न ब्रह्मा से भक्ति योग, सतोगुण संपन्न विष्णु से कर्म योग और तमोगुण संपन्न शंकर से ज्ञान योग का ऐसा प्रकाश है, जिसकी आभा हर एक जीवात्मा को प्रकाशमान करती है। महाभारत अर्थात् ‘जय संहिता’ के 18 पर्व में भीष्म पर्व का अभिन्न अंग गीता है, जिसमें त्रियोग का सुंदर समन्वय मिलता है।
गीता की गणना उपनिषदों में की जाती है। इस कारण इसे ‘गीतोपनिषद्’ भी कहा गया है, जो जीने की कला का महान ग्रंथ है। कहा जाता है कि सनातन धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश से संबद्ध गीता का प्रथम ज्ञान जगत के अलौकिक तेज से सूर्य देव को प्राप्त हुआ। उन्होंने पहले वैवस्वत मनु को, और उसके उपरांत मनु ने राजा इक्ष्वाकु को यह ज्ञान प्रदान किया, जिसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सविस्तार बताया। इसके साथ ही धृतराष्ट्र और उनके प्रिय संजय ने भी इसका प्रत्यक्ष श्रवण किया।
धर्म के वि’भिन्न मार्गों का समन्वय और निष्काम कर्म- ये गीता की दो प्रमु’ख विशेष’ताएं हैं। महा’भारत में वेदव्यास जी गीता के बारे में कहते हैं कि गीता सुगी’ता करने योग्य है, जो स्वयं पद्मनाभ भगवान विष्णु के मुखार्रंवद से निकली हुई है। भारती’य नदियों में गंगा, पशु’धन में गऊ, तीर्थों में गया, देवि’यों में गायत्री और धार्मिक ग्रंथों में गीता का अति वि’शेष मान है और ये पांचों ‘ग’कार हैं, जो मोक्षदा’यक और परम पवि’त्र भी है। कई अर्थों में गीता भा’रत और भारतीय’ता का जीवंत प्र’काश स्तम्भ है, जिसमें भूत, भवि’ष्य और वर्त’मान तीनों सन्नि’हित हैं। गीता का पठन-पा’ठन, मननर्-ंचतन व श्रवण हमें ज्ञानवा’न बनाता है। इसके हर एक श्लोक में जी’वन पथ से संबं’धित कोई-न-कोई तार अवश्य जुड़े हैं। जीवन’शैली के मर्म का जै’सा वर्णन इस’में हुआ है, वैसा कहीं और नहीं मि’लता।
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