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भाजपा से अलग होते ही नीतीश कुमार को क्यों अच्छे लगने लगे आनंद मोहन, बिहार में बन रहा नया समीकरण

पूर्व सांसद, विधायक और बाहुबली नेता आनंद मोहन को आज (27 अप्रैल) जेल से रिहा कर दिया गया। वह 1994 में आईएएस अधिकारी जी कृष्णैया की  हत्या में उम्रकैद की सजा काट रहे थे। उनकी रिहाई पर राजनीति जारी है। सियासी हलकों में कहा जा रहा है कि राजपूत वोट पाने के लिए नीतीश कुमार की सरकार ने सहयोगी तेजस्वी यादव के दबाव में कारा नीति में बदलाव किया है, जिसके तहत ये रिहाई हुई है। बिहार सरकार के फैसले की IAS एसोसिएशन ने भी आलोचना की है।

भाजपा से अलग होते ही नीतीश कुमार को क्यों अच्छे लगने लगे आनंद मोहन, बिहार में बन रहा नया समीकरण

बीजेपी के राज्यसभा सांसद और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा है कि आनंद मोहन के बहाने 26 अन्य दुर्दांत अपराधियों की रिहाई कर दी गई है, जो राज्य के लिए खतरनाक हैं। अन्य दलों ने महागठबंधन पर इस रिहाई के कदम के पीछे MY समीकरण को साधने का आरोप लगाया है। सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि आखिरकार आनंद मोहन अचानक नीतीश कुमार की आंखों के तारे क्यों और कैसे बन गए?

राजपूत वोटरों पर नजर:
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आनंद मोहन, जो 1990 के दौर में राजपूतों और ब्राह्मण युवकों के हीरो हुआ करते थे, के फिर से राजनीति में उतरने से राजपूत वोटरों का रुझान महागठबंधन की तरफ हो सकता है क्योंकि फिलहाल उनके बेटे चेतन आनंद राजद से विधायक हैं चर्चा है कि खुद आनंद मोहन लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की तरफ से प्रत्याशी हो सकते हैं।

आनंद मोहन ने सबसे पहला चुनाव 1990 में जनता दल के टिकट पर महिषी विधानसभा सीट से ही जीता था। बाद में वो चंद्रशेखर की सजपा में चले गए। फिर 1993 में बिहार पीपुल्स पार्टी का गठन किया। 1994 में उनकी पत्नी लवली आनंद वैशाली से सांसद चुनी गईं। फिर समता पार्टी में उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कर लिया। जेल में रहते हुए आनंद मोहन ने 1996 और 1998 में शिवहर सीट से संसदीय चुनाव जीता।

कितना अहम है राजपूत वोट?
बिहार में राजपूत वोटरों की आबादी करीब 6 से आठ फीसदी के बीच है। 30 से 35 विधानसभा क्षेत्रों में राजपूत मतदाता हार-जीत तय करते हैं। फिलहाल किसी एक खास सियासी दल की इस जाति पर पकड़ नहीं रही है। कमोबेश सभी दलों में इसके वोटर रहे हैं। राज्य की सत्ताधारी जेडीयू ने जहां लंबे समय तक वशिष्ठ नारायण सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा, वहीं राजद अभी भी जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाए हुए है। उधर, बीजेपी इस कोटे से आरके सिंह को केंद्रीय मंत्री बनाए हुए है।

माना जाता रहा है कि बीजेपी का राज्य में सवर्ण जाति के मतदाताओं पर ज्यादा प्रभाव है, इसलिए पार्टी अधिकांश चुनावों में 16 फीसदी वाले सवर्ण वोट बैंक को लुभाने के लिए सवर्ण उम्मीदवारों को ज्यादा टिकट देती रही है। 2020 के विधानसभा चुनाव में ही बीजेपी ने कुल 110 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से 51 सवर्णों को टिकट दिए गए। 51 सवर्णों में भी बीजेपी ने सबसे ज्यादा 22 टिकट राजपूतों को, 15 टिकट भूमिहारों, 11 ब्राह्मणों और तीन टिकट कायस्थों को दिए।

2014 के बाद से बदलीं परिस्थितियां:
मौजूदा समय में भूमिहार समुदाय बीजेपी के सबसे वफादार वोटर बनकर उभरे हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से बीजेपी राज्य में राजपूतों को भी मजबूत करने की कोशिश करती रही है। इसी नजरिए से 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 30 राजपूत, 18 भूमिहार, 14 ब्राह्मण और तीन बनियों को मैदान में उतारा था। पार्टी के स्टार प्रचारकों में राधामोहन सिंह, आरके सिंह, राजीव प्रताप रूढी, सुशील कुमार सिंह का आगे रखा जाता रहा है।

2024 और 2025 में नए जातीय समीकरण:
अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं। उससे पहले नीतीश कुमार और लालू यादव के गठजोड़ करने से राज्य में नए सियासी समीकरण बनते दिख रहे हैं। जेडीयू-राजद-कांग्रेस गठबंधन जहां यादव-मुस्लिम-कुर्मी के 34 फीसदी वोट बैंक पर मजबूत पकड़ बनाए हुए हैं, वहीं वह 6 से 8 फीसदी राजपूत वोटबैंक पर कब्जे का भी ठोस प्लान बना चुकी है। इसके लिए आनंद मोहन महागठबंधन के लिए तुरूप का पत्ता साबित हो सकते हैं।

दूसरी तरफ बीजेपी 16 फीसदी सवर्ण वोटरों के अलावा अन्य पिछड़ी और दलित जातियों के वोट बैंक में सेंधमारी के फूलप्रूफ प्लान पर काम कर रही है। इसके तहत बीजेपी कोईरी, पासवान, मल्लाह, मांझी पर फोकस कर रही है। इन चारों समुदाय से बीजेपी 14 से 15 फीसदी वोट में सेंधमारी की कोशिशों में जुटी है।

 

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